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Falling freely through seas of emptiness. Tossing, turning, drifting, lifeless. At the speed of light. Lost all count of time. Seeping thro...

Wednesday 22 August 2012

खुदगर्जी के पुतले

खुदगर्जी के पुतले दूसरों के अरमानो पर खडे.

खुद ही खुद में वो इतने खो गए,
मानो जैसे ज़मीर भी उनके सो गए.

ना आसू  दिखे इन्हें दूसरो के,
ना दर्द ये महसूस करें मासूमों के.

ज़रुरत मंद की पुकारे भी ये कभी ना सुने,
पर स्वयं प्रशंसा से ये कभी न थके.

खुदगर्जी के पुतले दूसरो की खुशियों के लहू में रंगे.

किसी और को अपने सामने ये कुछ ना समझे,
कमजोरों को तो ये अपने पैरों तले ही कुचले.

खुद को भगवान का सबसे बड़ा भक्त ये केहते,
दूसरो की ज़िन्दगी के फैसले ये अपने स्वार्थ के लिए करते.

ना बची कोई शर्म हैं इनमें ज़रा सी भी,
ना लगता कोई खौफ इन्हें खुदा का भी..


खुदगर्जी के पुतले
बाहर से तो चमकते, पर अन्दर से ये पूरे खोंक्ले.

खुदगर्जी के पुतले
गुमान कर बैठे की वो हमेशा इस उंचाई पर ही रहेंगे.
पर एक दिन बिखर के ये इसी ज़मीन में दफ़न हो जायेगे.
दूसरो के अरमानो के बोझ से ये जोरों से रौंधे जायेंगे.
चखेंगे ये कडवाहट मासूमो के लहू की भी.
अपनी खुदगर्जी पड़ेगी भारी,
इन पुतलो को ही..





2 comments:

  1. We will find many people like them these days. They don't mind thrashing others for their petty ends.

    Though provoking poem.

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  2. Matlabi log. The best is to run away as far as possible from these kind. Not just friends, even relatives behave like this. Wonderful lines in Hindi. I love Hindi poems!

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