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Drifting

Falling freely through seas of emptiness. Tossing, turning, drifting, lifeless. At the speed of light. Lost all count of time. Seeping thro...

Thursday 30 August 2012

ये नज़ारें ज़िन्दगी के


जब हर मोड़ पर दिखाए नए नज़ारें ये ज़िन्दगी,
जब हर किनारे पर नज़र आए कुछ और हसीं ये ज़मीन,

तो क्यों ना खो दे खुद को
कुछ पल ज़रा हम?

क्यों ना हो जाए गुम
इन नजारों में कुछ और हम?

ऐहसास करे वो खूबसूरती हम भी,
हो कर एक इस जहां से

महसूस करे उस खुदा को
इस ज़मीन, आसमान और इस हवा में

वो घुला है एक जादू-सा हो कर हर कतरें में,
वो छुपा है एक राज़-सा बनकर हर ज़र्रें में.

तो जब हर मोड़ पर दिखाए नए नज़ारें ये ज़िन्दगी,


क्यों ना समा ले इन नज़ारों को हम
हमारे दिल और ज़हन में?




क्यों ना शुक्रिया अदा करे हम उस उपरवाले का
इस जन्नत के लिए
यहाँ
इसी जहां में?




जब पाए यूही हम इन नज़ारों में खुदा को
तो हो जाए हम उसके और भी करीब




बस देखते रहे हम यूही

ये नज़ारें ज़िन्दगी के,,







Wednesday 22 August 2012

खुदगर्जी के पुतले

खुदगर्जी के पुतले दूसरों के अरमानो पर खडे.

खुद ही खुद में वो इतने खो गए,
मानो जैसे ज़मीर भी उनके सो गए.

ना आसू  दिखे इन्हें दूसरो के,
ना दर्द ये महसूस करें मासूमों के.

ज़रुरत मंद की पुकारे भी ये कभी ना सुने,
पर स्वयं प्रशंसा से ये कभी न थके.

खुदगर्जी के पुतले दूसरो की खुशियों के लहू में रंगे.

किसी और को अपने सामने ये कुछ ना समझे,
कमजोरों को तो ये अपने पैरों तले ही कुचले.

खुद को भगवान का सबसे बड़ा भक्त ये केहते,
दूसरो की ज़िन्दगी के फैसले ये अपने स्वार्थ के लिए करते.

ना बची कोई शर्म हैं इनमें ज़रा सी भी,
ना लगता कोई खौफ इन्हें खुदा का भी..


खुदगर्जी के पुतले
बाहर से तो चमकते, पर अन्दर से ये पूरे खोंक्ले.

खुदगर्जी के पुतले
गुमान कर बैठे की वो हमेशा इस उंचाई पर ही रहेंगे.
पर एक दिन बिखर के ये इसी ज़मीन में दफ़न हो जायेगे.
दूसरो के अरमानो के बोझ से ये जोरों से रौंधे जायेंगे.
चखेंगे ये कडवाहट मासूमो के लहू की भी.
अपनी खुदगर्जी पड़ेगी भारी,
इन पुतलो को ही..





Tuesday 14 August 2012

आज़ादी मुबारक हो

भ्रष्टाचार  के काले बादलो से ढकीं हैं ये ज़मीन,
यहाँ काफी अरसों से असली आज़ादी महसूस नहीं हुई.

रोज़ अत्त्याचार यहाँ जोरों से बरसें,
अन्धकार की आंधी यहाँ हर गरीब को अपनी लपेट में दबोचें.

कभी पोहोंचती तो हैं यहाँ सूर्य की किरणे,
पर जो किसान अनाज हैं उगाता, उसी के घर के चूल्हे में कोई रौशनी ना जले.

सूंख रही हैं ज़मीन यहाँ,
दिलों से प्यार भी शायद सूंख गया.

हरियाली लहराती यहाँ तो सिर्फ नोटों कीं,
जेब सिर्फ खनकती यहाँ अमीरों कीं.

बटवारा कर दिया हमारा, धर्म के पुजारियोंने,
बेच दिया अपने ज़मीर को, इस देश के नेताओंने.



पर एक थे हम 15 अगस्त  1947 में,
आज आज़ाद होकर भी बट गए हम सैकड़ों - करोड़ों हिस्सों  में.

पवित्र थी ये धरती तब, शहीदों के खून से
अब ना-पाक हैं ये ज़मीन, मासूमों के लहूँ में लतपत  हों  के.

बंद कर ली हैं आँखें हमने,
डोर हमारी करदी हवाले कुछ दरिंदों के.


पर उम्मीद करता हूँ की आज़ादी का उगता सूरज
फिर जगायेगा दिलों में ठीक वैसा ही एहसास

के इक बार फिर दोहराएगा बीता इतिहास!

फिर एक हो कर बढ़ें हमारें कदम,
फिर हाथों में हाथ दाल कर मिलें हम-वतन.

फिर से अन्याय से लढने की हममें जागृत हो भक्ती,
फिर से इक दुसरे के लिए मर-मिटने की हों हममें शक्ति.

ना डरे हम कोई द्र्ष्ट पापी या अधिकारी से,
और ना आये कभी कोई बेह्कावे में किसी भ्रष्ट नेता या धर्म पुजारी के.

अब नींद भी हमारी, हमें ना सुला पाए,
मिटाकर अन्याय और भ्रष्टाचार ही, हमारी आँखों को ठंडक मिल जाए..

उम्मीद करता हूँ कुछ ऐसा ही जोशीला जज़्बा हम सब में प्रकट हो.

आज हैं 15 अगस्त,

और हम सबको

आज़ादी मुबारक हो.