भ्रष्टाचार के काले बादलो से ढकीं हैं ये ज़मीन,
यहाँ काफी अरसों से असली आज़ादी महसूस नहीं हुई.
रोज़ अत्त्याचार यहाँ जोरों से बरसें,
अन्धकार की आंधी यहाँ हर गरीब को अपनी लपेट में दबोचें.
कभी पोहोंचती तो हैं यहाँ सूर्य की किरणे,
पर जो किसान अनाज हैं उगाता, उसी के घर के चूल्हे में कोई रौशनी ना जले.
सूंख रही हैं ज़मीन यहाँ,
दिलों से प्यार भी शायद सूंख गया.
हरियाली लहराती यहाँ तो सिर्फ नोटों कीं,
जेब सिर्फ खनकती यहाँ अमीरों कीं.
बटवारा कर दिया हमारा, धर्म के पुजारियोंने,
बेच दिया अपने ज़मीर को, इस देश के नेताओंने.
पर एक थे हम 15 अगस्त 1947 में,
आज आज़ाद होकर भी बट गए हम सैकड़ों - करोड़ों हिस्सों में.
पवित्र थी ये धरती तब, शहीदों के खून से
अब ना-पाक हैं ये ज़मीन, मासूमों के लहूँ में लतपत हों के.
बंद कर ली हैं आँखें हमने,
डोर हमारी करदी हवाले कुछ दरिंदों के.
पर उम्मीद करता हूँ की आज़ादी का उगता सूरज
फिर जगायेगा दिलों में ठीक वैसा ही एहसास
के इक बार फिर दोहराएगा बीता इतिहास!
फिर एक हो कर बढ़ें हमारें कदम,
फिर हाथों में हाथ दाल कर मिलें हम-वतन.
फिर से अन्याय से लढने की हममें जागृत हो भक्ती,
फिर से इक दुसरे के लिए मर-मिटने की हों हममें शक्ति.
ना डरे हम कोई द्र्ष्ट पापी या अधिकारी से,
और ना आये कभी कोई बेह्कावे में किसी भ्रष्ट नेता या धर्म पुजारी के.
अब नींद भी हमारी, हमें ना सुला पाए,
मिटाकर अन्याय और भ्रष्टाचार ही, हमारी आँखों को ठंडक मिल जाए..
उम्मीद करता हूँ कुछ ऐसा ही जोशीला जज़्बा हम सब में प्रकट हो.
आज हैं 15 अगस्त,
और हम सबको
आज़ादी मुबारक हो.